Indranil Bhattacharjee "सैल"

दुनियादारी से ज्यादा राबता कभी न था !
जज्बात के सहारे ये ज़िन्दगी कर ली तमाम !!

अपनी टिप्पणियां और सुझाव देना न भूलिएगा, एक रचनाकार के लिए ये बहुमूल्य हैं ...

May 26, 2010

अब चलो नींद के घर



सोयी रात के सिरहाने पर
जग रहा था चाँद

चिंता के हाथों को कसके
नींद रखी थी बाँध

ओढ़ ली है थकी आँखों ने 
पलकों की चादर

दफ्तर छोड़ा होश का
अब चलो नींद के घर

अँधेरे ने बेहोशी में
छेड़ा मन का तार

दूर सपनों के वादी में
बज उठा गिटार

चित्र साभार गूगल सर्च

48 comments:

  1. सोयी रात के सिरहाने पर
    जग रहा था चाँद ।

    चिंता के हाथों को कसके
    नींद रखी थी बाँध ।

    वाह ! गज़ब का लिखा है, बहुत खूब

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  2. ओढ़ ली है थकी आँखों ने
    पलकों की चादर



    इन पंक्तियों ने तो दिल को छू लिया....

    बहुत सुंदर प्रस्तुति....

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  3. चिंता के हाथों को कसके
    नींद रखी थी बाँध ।

    ओढ़ ली है थकी आँखों ने
    पलकों की चादर

    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...

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  4. kya baat hai ...neend ki badi hi khubsurati ke sath likha hai indraneel babu .. mujhe bahut pasand aayi ...

    ओढ़ ली है थकी आँखों ने
    पलकों की चादर ।

    दफ्तर छोड़ा होश का
    अब चलो नींद के घर ।

    in lines ne mann moh liya....

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  5. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है।

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  6. वाह !

    इस बात को यों भी कहा और सोचा जा सकता है..

    कमाल !

    बधाई !

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  7. waah sirji gazab ki baat....bahut sundar

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  8. 'सोयी रात के सिरहाने पर
    जग रहा था चाँद ।'
    वाह! कितनी सुन्दर बात कही है...
    बहुत खूबसूरत रचना है.

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  9. बेहतरीन उपमाएं इस्तेमाल कीं आज आपने..

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  10. सोयी रात के सिरहाने पर
    जग रहा था चाँद ।
    सुन्दर बिम्ब उकेरा है
    लाजवाब

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  11. अँधेरे ने बेहोशी मेंछेड़ा मन का तार ।


    दूर सपनों के वादी में बज उठा गिटार ।

    बहुत सुंदर !

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  12. अँधेरे ने बेहोशी में
    छेड़ा मन का तार ।

    दूर सपनों के वादी में
    बज उठा गिटार

    -क्या बेहतरीन कवित्त!! वाह!!

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  13. सूक्ष्म पर बेहद प्रभावशाली कविता...सुंदर अभिव्यक्ति..प्रस्तुति के लिए आभार जी

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  14. सशक्त,सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।

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  15. बहुत से गहरे एहसास लिए है आपकी रचना ...

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  16. अँधेरे ने बेहोशी में
    छेड़ा मन का तार

    दूर सपनों के वादी में
    बज उठा गिटार ..

    बहुत खूब सेल साहब ...
    ये गिटार यूँ ही बजती रहे उम्र भर .. लाजवाब लिखा है ...

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  17. "दफ्तर छोड़ा होश का अब चलो नींद के घर ।"
    waah!kya baat hai ji...
    kunwar ji,

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  18. चिंता के हाथों को कसके
    नींद रखी थी बाँध ।

    ओढ़ ली है थकी आँखों ने
    पलकों की चादर
    bahut khubsurti se likha hai

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  19. क्या दृश्य है... राहत देती पंक्तियाँ !!

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  20. सोयी रात के सिरहाने पर
    जग रहा था चाँद ।'
    बेहद खूबसूरत

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  21. पिछले कुछ समय से आपके ब्लॉग का नियमित पाठक बना हुआ हूँ.......
    इस बार तो कमाल का लिखा है दोस्त.......क्या इमेजिनेसंस हैं भाई वाह......

    सोयी रात के सिरहाने पर
    जग रहा था चाँद ।
    इसके बाद भी कुछ कहने को रह जाता है क्या.......


    ओढ़ ली है थकी आँखों ने
    पलकों की चादर ।
    लूट लिया मोहतरम.......आपने !

    दूर सपनों के वादी में
    बज उठा गिटार ।
    बिलकुल अद्भुत प्रयोग.......!

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  22. आप सभी को मेरा तहे दिल से शुक्रिया ... यूँ ही प्यार बनाये रखिये .. जो भी है आपके प्रोत्साहन का फल है ...

    @ singhsdm
    आप सा नियमित पाठक पाकर मैं भी धन्य हूँ ... आपका स्वागत है ... आते रहिएगा ...

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  23. अँधेरे ने बेहोशी में
    छेड़ा मन का तार ।

    दूर सपनों के वादी में
    बज उठा गिटार

    uff...aakhir yaha bhi nahi chhoda.....socho ki taare yaha bhi baz uthi.

    bahut sundar shabdo ka prayog.

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  24. 'दूर सपनों के वादी में
    बज उठा गिटार ।'
    - यह गिटार सपने की वादी में ही नहीं वास्तिवकता के धरातल में भी बजना चाहिए. सुन्दर कविता.

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  25. बहुत सुंदर प्रस्तुति....सुन्दर कविता |

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  26. चिंता के हाथों को कसके
    नींद रखी थी बाँध ।
    ओढ़ ली है थकी आँखों ने
    पलकों की चादर ।
    दिल को छू गयी ये पंक्तियाँ! बहुत सुन्दर रचना!

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  27. ओढ़ ली है थकी आँखों ने
    पलकों की चादर

    bahut khubsurat

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  28. Harek pankti ne gazab dhaya hai! Wah!

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  29. आपकी रचना पढ़कर सुखद अनुभूति हुई। बधाई!
    प्रकाशन संबंधी कुछ नियम हैं। उसके अनुसार कुछ सुझाव हैं। इससे गुणवत्ता में वृद्धि होगी।
    [1] किसी रचना के साथ यदि चित्रांकन आवश्यक हो तो उसका क्षेत्रफल 30 % से अधिक नहीं होनी चाहिए।
    [2] छंदबद्ध रचना को उसके परंपरागत स्वरूप में प्रस्तुत करना चाहिए। पंक्तियों को असगत रूप में रखने से काव्य की छंद परंपरा और तुकांतिक लालित्य से पाठक वंचित हो जाता है।
    [3] इस पोस्ट में चित्राकन को थोडा़ छोटा करके देखें।

    सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
    /////////////////////////////////////////

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  30. डॉ लखनवी जी, आपके सुझावों के लिए शुक्रिया, मैंने चित्र को थोडा छोटा कर दिया है ...
    रही बात छंद की, तो वह भी यथासंभव पालन करने की कोशिश करूंगा ...

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  31. achhi rachna...sirji..
    achha likhte hain aap....

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  32. सोयी रात के सिरहाने पर
    जग रहा था चाँद .....

    कुछ यूँ देर तक
    जगता रहा साथ चाँद
    जो मैंने पूछा तो
    तेरा पता दे गया .....

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  33. आपकी रचनाएँ बहुत ही सरल, सुंदर और सौम्य है.

    कभी अजनबी सी, कभी जानी पहचानी सी, जिंदगी रोज मिलती है क़तरा-क़तरा…

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  34. बहुत बेहतरीन अभिव्यक्ति, शायद सबसे अच्छी नींद यही होगी. हर कोई ऐसी ही नींद की चाह रखता है

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  35. आईये जानें .... मैं कौन हूं!

    आचार्य जी

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  36. बहुत सुंदर प्रस्तुति....

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  37. बहुत सुंदर रचना।
    निन्ना -निन्ना आऽऽऽ जाऽऽऽ
    की उम्र से निकल आने के बाद यही होता है।
    जाने कब मन उचटता है,
    जाने क्यूँ चैन खोता है।
    वाह!

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  38. Anchue se bimbon ka sundar prayog.shubkamnayen.

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  39. बहुत दि‍न हुए, महीना भर ही हो गया आपकी वादी में गि‍टार फि‍र नहीं बजा....

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  40. अरे दादा, कहां गायब हो?
    कमी खल रही है।

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  41. ओढ़ ली है थकी आँखों ने
    पलकों की चादर ।

    दफ्तर छोड़ा होश का
    अब चलो नींद के घर ।
    ...ये पंक्तियाँ तो बहुत ही लाजवाब हैं.
    ..बधाई.

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  42. bahut sunder likhaa hai...

    oopar khaane ki tasweerein dekh kar munh mein paani aa gayaa...

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