पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद से दो घंटे के रस्ते पे एक मनोरम जगह आती है, नाम अबोटाबाद । यहाँ पाकिस्तानी सेना का एक प्रशिक्षण केंद्र स्थित है । कहते हैं कि इस जगह पे ऐसे और भी प्रशिक्षण केंद्र हैं जहाँ दुनिया भर के विभिन्न उग्रवादी और आतंकवादी संगठन के आतंकियों को न केवल प्रशिक्षण प्राप्त होता था, बल्कि उन संगठनों के बड़े बड़े नेताओं को यहाँ पांच सितारा होटल जैसे आराम में रहने का मौका भी मिलता था । यहाँ कई ऐसे मकानों का इंतजाम है/था जहाँ इन इंसानियत की दुश्मनों को पनाह दिया जाता था । और जब आतंकवादियों की बात हो तो सबसे पहले जो नाम सामने आता है वो है ओसामा बिन लादेन का । दुनिया के लगभग हर देश में आतंक का पर्याय बन चूका वो नाम, CIA के प्रहार सूची (hit list) में, लगभग एक दशक से, सबसे ऊपर था ।
ओसामा बिन लादेन, सऊदी अरब के एक धनी परिवार में दस मार्च 1957 में पैदा हुआ था । वो मोहम्मद बिन लादेन के 52 बच्चों में से 17वें था । मोहम्मद बिन लादेन सऊदी अरब के अरबपति बिल्डर थे जिनकी कंपनी ने देश की लगभग 80 फ़ीसदी सड़कों का निर्माण किया था । सिविल इंज़ीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान वो कट्टरपंथी इस्लामी शिक्षकों और छात्रों के संपर्क में आया । दिसंबर 1979 में जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर हमला किया तो ओसामा ने आरामपरस्त ज़िदंगी को छोड़ मुजाहिदीन के साथ हाथ मिलाया और शस्त्र उठा लिया । लादेन, अमरीका पर 9/11 के हमलों के बाद दुनिया भर में चर्चा में आया । इसके बाद अमरीका ओसामा को दुश्मन के रूप में देखने लगा और ख़ुफ़िया एजेंसी एफ़बीआई की मोस्ट वॉंटिड लिस्ट में उसे पकड़ने या मारने के लिए 2.5 करोड़ डॉलर के पुरस्कार की घोषणा की गई । ओसामा अल कैदा नमक आतंकवादी संगठन का मुखिया था । 1979 से लेकर आजतक, इस संगठन के आतंकी, दुनियाभर में न जाने कितने मासूमों की जान ले चुके हैं । बिन लादेन और अल कायदा न केवल 9/11 के लिए जिम्मेदार थे बल्कि 1998 में केन्या और तंजानिया में अमेरिकी दूतावासों पर बमबारी भी इन्ही लोगों ने की थी ।
कई देशों की ख़ुफ़िया तंत्र इस संगठन का मुखिया ओसामा को पकड़ने की कोशिश में दिन रात लगे हुए थे पर कामयाबी हाथ नहीं आ रही थी । ओसामा हर बार सबके आँखों में धुल झोंक के भागने में कामयाब हो जाता था । कहते हैं उसे पाकिस्तान से सरकारी मदद मिला करती थी । वैसे यह बात ऐसा भी नहीं है कि इसपे यकीन करना मुश्किल हो, क्यूंकि आखिर जब उसे मार गिराया गया तो वह पाकिस्तान की उसी जगह पे पाया गया जहाँ का उल्लेख मैं इससे पहले कर चूका हूँ, अबोटाबाद ।
रविवार की रात, ख़ुफ़िया खबर के आधार पर अमरीकी सेना के जवान अबोटाबाद स्थित एक विशाल भवन को चारो तरफ से घेर लिए । कुछ जवान हेलिकोप्टर पे सवार भवन को ऊपर से निगरानी कर रहे थे । उनको खबर थी कि ओसामा इसी भवन में कहीं छिपा हुआ है । उस भवन तक जाने वाले रास्तों पर पुलिस पहरा बिठा दिया गया था ताकि कोई भाग न सके । अचानक उस भवन से हेलिकोप्टर पर गोलीबारी शुरू हो गई । इस गोलीबारी से एक हेलिकोप्टर नीचे गिर गया । फिर अमरीकी जवान उस भवन पर आक्रमण कर दिए जिससे 40 मिनिट के घमासान लढाई के बाद अपने एक पुत्र समेत ओसामा बिन लादेन की मृत्यु हो गई । उसे सर पर गोली लगी थी ।
यह तो हो गई खबर की बात । अब मैं अपनी बात करता हूँ । हो सकता है इसी आक्रमण में ओसामा को मार दिया गया हो । यह भी मुमकिन है कि उसे बहुत पहले ही मार दिया गया हो पर खबर अब बाहर निकली है ।
खैर हकीकत यह है कि इस इंसानियत के दुश्मन को मार गिराया गया है । और सच कहता हूँ, मुझे भारत के क्रिकेट विश्वकप जीतने से जितनी खुशी हुई थी, या फिर श्री अन्ना हजारे की जीत से, उससे कहीं ज्यादा खुशी आज हो रही है । हजारों लाखों बेक़सूर, मासूम इंसान की जिंदगी लेने वाला इस जानवर को मार गिराने के लिए मैं अमेरिकी सरकार को बधाई देता हूँ । बल्कि मैं तो कहता हूँ कि आज के बाद मई की पहली तारीख को labour day के साथ साथ “इंसानियत दिवस” (Humanity Day) के नाम से विश्वभर में मनाया जाना चाहिए ।
पर इस खुशी के साथ कहीं न कहीं मेरे मन में एक दुःख भी है ।
9/11 के हमले का बदला तो अमरीकी सरकार पाकिस्तान के घर में घुसकर ले ली है । उसके लिए उसे मेरा सलाम । पर 26/11 का मुंबई आक्रमण का बदला हमारा देश कब लेगा ? अमरीकी नागरिकों की जान की कीमत है, क्या भारतीय नागरिकों की जान की कोई कीमत नहीं है ? क्या उन 150 मासूम लोगों की जान व्यर्थ गई ? अमरीका में ये दम है कि वह पाकिस्तान में घुसकर बदला ले । श्री लंका जैसे छोटे देश में यह दम है कि वह अपने सरज़मीं से LTTE को पूरी तरह खतम कर दे । फिर हमारा देश तो एक परमाणु शक्ति सम्पन्न देश है । हमारे देश की सरकार इस तरह हाथों पे हाथ रखे कब तक बैठी रहेगी ? कब तक हम न्याय को तरसते रहेंगे ? हमारी सरकार को अपने देश के नागरिकों की जान की परवाह नहीं है क्या ?
दिन दहाड़े दुसरे देश के आतंकवादी हमारे देश में घुसके बेक़सूर लोगों की जान ले सकते हैं, पर हम इतनी बड़ी वारदात के बाद भी उनसे केवल सबूत की भीख मांगते रह जायेंगे ! क्या इसीलिए हम इन नेताओं को चुनके, देश का शासन इनके हाथों में सौंपे हैं ? क्या हम इतने गए गुजरे हैं ?
दुःख इस बात की है कि ऐसे हर सवाल का जवाब में मुझे मेरे अंतर्मन से केवल “हाँ” मिलता है ।
आज़ादी के 60 साल बाद भी हमारे अंदर इतनी काबिलियत नहीं आई कि हम अपने देश, राज्य या गांव/शहर के लिए सही नेता/जनसेवक का चुनाव कर सकें । हम आज भी दकियानुसी विचारों के, जात-पात के, धर्म-मज़हब के और प्रांतीयता के एक ऐसे अंधे कुएं में जी रहे हैं कि हमें सही रास्ता दिखाई नहीं देता । हमारे हाथ में वोट का अधिकार है, पर 60 सालों में भी हमें इस अधिकार का सही इस्तमाल करना आया नहीं । दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि दरअसल भारत और इसके नागरिक गणतंत्र के काबिल नहीं हैं ।