Indranil Bhattacharjee "सैल"

दुनियादारी से ज्यादा राबता कभी न था !
जज्बात के सहारे ये ज़िन्दगी कर ली तमाम !!

अपनी टिप्पणियां और सुझाव देना न भूलिएगा, एक रचनाकार के लिए ये बहुमूल्य हैं ...

Apr 25, 2011

बनके सितारा चमकता रहूँगा

 काफी दिनों बाद कोई रचना दे रहा हूँ ब्लॉग में .... एक हलकी फुलकी सी, प्यार भरी कविता प्रस्तुत है आप सबके लिए ... चित्र मेरे अपने एल्बम से है  ...
बनके नश्तर तुम
चुभ जाओ दिल में,
बनके ज़ख्म
मैं हँसता रहूँगा
नज़रों से भले तुम
गिरा दो मुझको,
दिल में तुम्हारा
मैं बसता रहूँगा

करते जाओ तुम
कितना भी सितम,
हर सितम तुम्हारा
मैं सहता रहूँगा
मानो न मानो,
मगर हर पल,
मैं हूँ तुम्हारा
यह कहता रहूँगा

सूनी सी रातों में
जब तुम अकेली,
बैठोगी यादों के 
एल्बम खोलकर
तुम्हारी यादों के 
आसमान में मैं,
बनके सितारा 
चमकता  रहूँगा

एकदिन अचानक
जब आयेगा पतझड़,
तुम्हारे चमन के 
एक कोने में तब भी ...
जैसे एक उम्मीद
की दहकती लौ,
खिलके सुमन मैं
महकता रहूँगा

दिल में तुम्हारा
मैं बसता रहूँगा


Apr 9, 2011

क्रोध - एक विश्लेषण

क्रोध एक ऐसी भावना है जो किसीके लिए मानसिक, शारीरिक या सामाजिक रूप से आहत होना, अन्याय का शिकार होना, या फिर किसी अभाव के कारण होने वाली बदले की प्रवृति का मनोवैज्ञानिक व्याख्या है ।
 

यदि आप पर सचमुच कोई अन्याय हुआ है तो क्रोध लाज़मी है, पर ऐसा नहीं है और आपको केवल ऐसा लग रहा है क्यूंकि आप इस वक्त उत्तेजित मानसिक अवस्था में हो, तो फिर क्रोध गलत है और आपके तथा आपसे जुड़े लोगों को हानि पहुंचा सकता है ।
 

R. Novaco नामक वैज्ञानिक ने कहा है कि क्रोध के तीन तौर तरीके है -  संज्ञानात्मक (मूल्यांकन), भावात्मक-दैहिक (तनाव और आंदोलन) और व्यवहार (वापसी और विरोध) ।
 

गुस्से में व्यक्ति को आसानी से गलती हो सकती है क्योंकि क्रोध में व्यक्ति स्वयं पे निगरानी रखने की क्षमता और निष्पक्ष निरीक्षण की क्षमता खो देता है । गुस्से में अक्सर हम सही को गलत और गलत को सही समझ बैठते हैं । इसलिए कहा जाता है कि कोई भी निर्णय गुस्से में न लिया जाय । क्यूंकि गुस्से में लिया हुआ कोई भी निर्णय कभी भी सही नहीं होता है ।
 

तो क्या क्रोध को दबा के रखना चाहिए ? मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि ऐसा बिलकुल नहीं करना चाहिए । 

दरअसल क्रोध सुधारात्मक कार्रवाई के लिए मनोवैज्ञानिक संसाधन जुटा सकता है । लेकिन ये भी ध्यान रखें कि अनियंत्रित क्रोध, व्यक्तिगत या सामाजिक स्तर पे नुक्सान ही करता है । 

संतुलित व्यक्तित्व वो है जिसे यह पता है कि किस वक्त, किस तरह, किस पर, कितना और किस वजह से गुस्सा करना चाहिए ।
 

मनोवैज्ञानिकों के हिसाब से क्रोध तीन प्रकार के होते हैं:
  • 18 वीं सदी के अंग्रेजी बिशप जोसेफ बटलर, द्वारा "अचानक क्रोध" नाम से पुकारा गया यह क्रोध आत्मरक्षा के आवेग से जुड़ा हुआ है । यह मानव और पशु दोनों में दीखता है और तब होता है जब वो सताया जाता है या फँस जाता है ।
  • क्रोध के दूसरे प्रकार का नाम है "समझकर और जानबूझकर" क्रोध । यह तब होता है जब हमें लगता है कि कोई जानबूझकर और सोच समझकर हमें नुकसान पहुंचा रहा है ।
क्रोध के उपरोक्त दो रूप सामयिक है ।
  • क्रोध के तीसरे प्रकार "फितरती" क्रोध और किसी स्वभावतः क्रोधी व्यक्ति के व्यक्तित्व से जुड़ा हुआ होता है । इनके चरित्रगत लक्षण होते हैं चिड़चिड़ापन, हमेशा की नाराजगी और गुस्से । यह अक्सर देखा गया है कि दम्भी व्यक्ति को सहज ही क्रोध आ जाता है । जो खुद को दूसरों से बेहतर समझता है वो आसानी से क्रोधित भी हो जाता है ।

भारतीय दर्शन में क्रोध को दुःख और दंभ के साथ जोड़ के देखा गया है । इस में ऐसा समझा जाता है कि किसी कारण जब कोई दुखी हो जाता है तो उसे क्रोध आ सकता है । इस दुःख के कारण अलग अलग हो सकता है । कभी हमें यह लगता है कि हम पर अन्याय हुआ है । कभी हमें वो नहीं मिलता है जो हम चाहते हैं, और इस कारण भी दुःख हो सकता है । अक्सर यह होता है कि हम खुदके बारे में अपने ही मन में बहुत उच्च धारणा बना लेते हैं ।  इसे दंभ कहते हैं । जब हम दूसरों के व्यवहार से हमारे इस धारणा को ठेस पहुँचते देखते हैं तो हमें दुःख होता है ।

यह अक्सर देखा गया है कि जब कोई क्रोध दिखाता है तो लोग उसकी बात आसानी से मान लेते हैं । धीरे धीरे यह बात उसकी आदत बन जाती है और वह हर बात पे गुस्सा दिखाना शुरू कर देता है । इस बात से अक्सर सामाजिक स्तर पे असमानता बढती जाती है । क्रोधी व्यक्ति व्यक्तिगत संबंधों में भी हमेशा क्रोध को इस्तमाल करके जीतने की कोशिश करते रहता है । इसका नतीजा यह होता है कि संबंधों में खटास आ जाती है ।

Apr 6, 2011

आखिर कब तक ?


कहने में बुरा लगता है और सुनने में भी, पर हमारे समाज में दायित्वज्ञान का बड़ा अभाव है । 
हम अक्सर सुनते हैं कि यदि किसीने कभी किसी गलती की वजह से SORRY कह दिया, तो लोग कहते हैं कि ये SORRY क्या है भई । ये अंग्रेज लोग चले गए लेकिन अपने पीछे SORRY छोड़ गए ।
मैं कई बार सोचता हूँ, कि कम से कम उनमें किसी गलती के लिए SORRY कहने की तमीज तो है । हम में तो वो भी नहीं है ।
हमारे समाज में केवल दूसरों की गलतियाँ देखने-गिनने के संस्कार हैं । 
अपनी गलती कोई मानना ही नहीं चाहता । दूसरों को आईना दिखाओ । खुद अपना चेहरा आईने में मत देखो । अपने गिरेबान में झांकना ही नहीं है । विवेक नाम की चीज़ का हमारे व्यक्तित्व में कोई स्थान ही नहीं है ।
हमारे समाज की हर परत में भ्रष्टाचार इस कदर घर कर गया है कि यदि आज के तारीख में हम हर भ्रष्ट इंसान को सज़ा देने लगें तो बच्चो और पागलों के अलावा एक भी इंसान सज़ा से बच नहीं पायेगा । भ्रष्टाचार एक ज़माने में समाज में बीमारी माना जाता था, और था भी । आज यह हमारा जीवनधारा बन चूका है । कितनी शर्म और दुःख की बात है । लेकिन क्या हमें कोई फर्क पड़ता है ? बिलकुल नहीं ।
यदि ज़रा सा भी फर्क पड़ता तो आज एक ७३ साल के बूढ़े को हमारे लिए आमरण अनशन पे बैठने की ज़रूरत नहीं होती ।
कितनी आसानी से हम सारी गलती हमारे राजनेताओं के सर पे थोप देते हैं । क्या हम खुद दूध के धुले हैं ? सबसे ज्यादा कसूरवार तो जीवन के हर मोड़ पे भ्रष्टाचार करते और भ्रष्टाचार का साथ देते हम आम भारतीय हैं किस मुंह से हम दूसरों को दोष देते हैं ? ये भ्रष्ट राजनेता, पुलिस, वकील, डॉक्टर, ठेकेदार, सरकारी बाबु, ये सब आये कहाँ से हैं ? कोई मंगल ग्रह से तो नहीं आये । हमारे बीच से ही आये हैं । ये सब हमारे ही समाज का हिस्सा है । और जब समाज ही सड़ चूका है तो केवल कुछ लोगों को दोष देने का क्या मतलब ?
क्या हमको किसीने कसम खिलाई थी कि एक भ्रष्ट नेता को चुनना है ? नहीं न ? फिर भी पचास सालों से लगातार हम गुण-दोष को अनदेखा करते हुए केवल जाती, धर्म, प्रांतीयता के आधार पर चुनाव करते आ रहे हैं ।  आखिर क्यूँ ?
कब तक हम यूँ ही भ्रष्टाचार को जन्म देते रहेंगे ? आखिर कब तक ?
बन्दर को राजसिंहासन पर बिठाओगे तो अराजकता ही फैलेगी । ऐसे में हम एक स्वस्थ, स्वच्छ समाज की उम्मीद ही क्यूँ करें ? यदि अच्छा समाज चाहते हो तो पहले खुद को सुधारना ज़रूरी है । पहले अपने मन को टटोला जाय । पहले अपने मन से गन्दगी हटाया जाय । ये जात-पात, ये धर्म-मज़हब, ये यहाँ-वहां, ये भाई-भातिजाबाद, ये सब बातें हमारे मन में जड़ जमा चुकी है । सबसे पहले ज़रूरी है इन गलत बातों को जड़ से उखाड फेंकना । तब जाके हम इस लायक बन पाएंगे कि किसी और से इमानदारी की उम्मीद करें ।

चित्र  गूगल सर्च से ली गई है !

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