दिल में न जाने कितनी बातें आती जाती रहती है । कई बात ऐसी होती है जिनको कविता में ढालना संभव नहीं हो पाता है । कई बात ऐसी होती है जिनके बारे में सोचते सोचते वो एक कविता या ग़ज़ल का रूप ले लेती है । अक्सर ऐसा होता है कि लाख कोशिश करूँ, कुछ भी नहीं लिख पाता हूँ । और कभी कभी अपने आप पंक्तियाँ बह निकलती हैं ।
तो दोस्तों फिर हाज़िर हूँ आपके सामने एक ताज़ातरीन ग़ज़ल लेकर ।
इस ग़ज़ल को मैंने 'फायलातुन, फायलातुन, फायलुन' बहर में लिखने की कोशिश की है ।
आईने के पीछे रहता कौन है ।
रोज ऐसे मुझपे हँसता कौन है ॥
पीठ पर यूँ हाथ हमदर्दी के रख ।
दुःख पे मेरे मुंह चिढाता कौन है ॥
जब भी नैनो के झरोखे बंद हो ।
द्वार मन का खटखटाता कौन है ॥
वार दिल पर करती है तीरे नज़र ।
मुंह छुपाके मुस्कुराता कौन है ॥
आज महफ़िल में तमाशा देख लो ।
बिन पिए ही लड़खड़ाता कौन है ॥
चाहिए मुझको सवेरा बस अभी ।
रात अँधेरे में रोता कौन है ॥
करके बातें दीन मज़हब की यहाँ ।
आग बस्ती में लगाता कौन है ॥
‘सैल’ को बोलो कि ऐसा ना करे ।
दिल्लगी में दिल लगाता कौन है ॥