मेरे इस ग़ज़ल पर डॉ. डंडा लखनवी जी कुछ सुधार किये हैं ! इसके लिए मैं उनका आभारी हूँ ! उनके द्वारा बताये हुए संसोधन को मैं इसमें शामिल कर रहा हूँ ... मुझे यकीन है कि इससे इस ग़ज़ल में और निखार आ गया है .... सभी बड़ों एवं बुजुर्गों से निवेदन है कि जब भी मौका मिले इसी तरह से मार्गदर्शन करते रहे ...
यही दौर चल रहा शाम से । टकराया है जाम जाम से ॥
अगर नहीं है दिली मोहब्बत ! क्या सलाम क्या एहतिराम से॥
बात वो लिख डाली ग़ज़ल में !
चुभ रही थी जो कल शाम से !!
बंद बस कर ले आँखों को !
बेफिक्र हो जा आराम से !!
जिस दर को मैं भूल चुका था ! आया है ख़त उस मुकाम से॥
आजकल यहाँ जुदाई का मौसम चल रहा है ! इसलिए मन उदास ! इस उदासी में कहीं किसी दरार से रिसने लगे कुछ भावों को कविता में ढाल दिया जो आपके समक्ष प्रस्तुत है ! इस कविता को समर्पित करता हूँ अपनी अर्धांगिनी को जो इस वक़्त मुझसे काफी दूर है ! कहा न ... आजकल जुदाई का मौसम चल रहा है ...
तुम एक दिन हो ! हाँ, पूरा एक दिन ! मुझे देखते ही तुम्हारे चेहरे पर खिल जाती है सुबह की किरणे ! तुम्हारी बातें, जैसे दिन भर इस डाल से उस डाल, इस पेड़ से उस पेड़, चिड़ियों का फुदकना चहचहाना ! उदासी में भी मुस्कुराती हो तो लगता है कि, बादलों की ओट से चांदनी झलक रही हो ! और नाराज़ होती हो तो रात घनेरी घिर जाती है ! मनाता हूँ, तो बहुत मुश्किल से फिर एक हलकी सी मुस्कान, जैसे सुबह कि पहली किरण ! इसलिए तो कहता हूँ कि, तुम एक दिन हो, पूरा एक दिन !