Indranil Bhattacharjee "सैल"

दुनियादारी से ज्यादा राबता कभी न था !
जज्बात के सहारे ये ज़िन्दगी कर ली तमाम !!

अपनी टिप्पणियां और सुझाव देना न भूलिएगा, एक रचनाकार के लिए ये बहुमूल्य हैं ...

Feb 27, 2010

शहर की इमारतें

छुं रही है आसमां को शहर की इमारतें !
और ऊँची होने को बेताब सी इमारतें !!
घर कहाँ है, रिश्ते कहाँ, रह गई बस दीवारें !
इमारतों के साये मे सिमटती इमारतें !!
छुप गए हैं चाँद तारे, आफताब ढक गया !
अब तो बस खिडकियों से झांकती इमारतें !!
अब जगह नहीं है शहर में इंसानों के लिए !
शहर में जगह के लिए झगडती इमारतें !!
तोड़े चाहे मंदिर या मस्जिद "सैल" तोड़ दे !
इमारतों के लिए ही टूटती इमारतें !!
(Copyright reserved by: Indranil Bhattacharjee)

Feb 25, 2010

किनारा

लग ना जाए किसी और किनारे से !
बाँध ले तू किश्ती को इस किनारे से !!
आया होगा तोड़कर कोई किनारा !
आ टिका है इसलिए इस किनारे से !!
पार होना है तो पानी में आ जाओ !
क्यूँ चलता है डर डर के तू किनारे से !!
था जो शहर बह गया वो सैलाब में !
अब मिलेगा क्या तुझको इस किनारे से !!
मैंने सुनी है पुकार फिरसे उनकी !
लौट गए थे जो साथी किनारे से !!
था भरोसा जिनपर बहुत मुझको यारों !
वो भी निकल गए छुपकर किनारे से !!
करती है बयां जो देखा है आँखों ने !
आंसूं जो टपका है इनके किनारे से !!
बह जाने दे 'सैल' किश्ती को कहीं भी !!
दिल न लगाना तू अब इस किनारे से !! 
(Copyright reserved by: Indranil Bhattacharjee)

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