मैं एक बहता दरिया हूँ, ठहर नहीं सकता हूँ मैं !
मैं हूँ शायर का एहसास, कि मर नहीं सकता हूँ मैं !!
जलता रहता है आंधियों में भी जो वो चराग हूँ !
इन ज़रा सी हवाओं से अब डर नहीं सकता हूँ मैं !!
इन ज़रा सी हवाओं से अब डर नहीं सकता हूँ मैं !!
मैं आया था जिन राहों को ज़िन्दगी में पीछे छोड़ !
उन राहों से अब दुबारा गुज़र नहीं सकता हूँ मैं !!
उन राहों से अब दुबारा गुज़र नहीं सकता हूँ मैं !!
मज़हब के आड़ में खुदा को भी बेच डाले लोग !
काफिर हूँ, पर इतना नीचे उतर नहीं सकता हूँ मैं !!
काफिर हूँ, पर इतना नीचे उतर नहीं सकता हूँ मैं !!
अच्छे कपड़े न सही पर दिल तो "सैल" अच्छा है !
तेरे लिए इससे ज्यादा संवर नहीं सकता हूँ मैं !!
तेरे लिए इससे ज्यादा संवर नहीं सकता हूँ मैं !!
SHAIL JI ..BHAV POORN RCHNA..MAN KI ..SUNDER ABHIVKTI....UTTAM
ReplyDeletebahut hi achhi rachna
ReplyDeletebilkul sahi kaha aapne jisme jara bhi hogi baki insaniyat vokaise iswar ke naam ki boli laga sakta hai. aaj ke samay me ase bhi log hai bedard jo maa baap ki boli bhi laga sakte hai jinhe iswar ka roop maana gaya hai.
ReplyDeletebahut khob Sail ji...
ReplyDeleteभाई जी,
ReplyDeleteअभिवंदन
बहुत अच्छी ग़ज़ल के लिए बधाई.
- विजय
बहुत खूबसूरत ..उर्जा प्रदान करने वाली सार्थक रचना.....बधाई
ReplyDeleteअच्छी रचना
ReplyDeleteBahut khub.likhte rahiye.
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत रचना! बधाई!
ReplyDeleteचुभती हुई सी सुन्दर रचना
ReplyDeleteWaah..kya gazab ki rachana hai..!
ReplyDeleteMain shayar ka ehsaas..... waah kya baat kah di
ReplyDeletemaqta behad pasand aaya
बहुत खुब बढिया ऱचना,
ReplyDeleteBhai mere, main bhi kaafir!
ReplyDeleteAchook!
bahut sundar ,aakhri 4 line bahut khoob rahi .copy nahi ho rahi nahi to utaar kar batati .umda.
ReplyDeleteबहुत खुब बढिया ऱचना,
ReplyDeleteक्या ठसक है जी! वाह!
ReplyDeleteबढ़िया, भावपूर्ण पंक्तियाँ हैं.
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