Indranil Bhattacharjee "सैल"

दुनियादारी से ज्यादा राबता कभी न था !
जज्बात के सहारे ये ज़िन्दगी कर ली तमाम !!

अपनी टिप्पणियां और सुझाव देना न भूलिएगा, एक रचनाकार के लिए ये बहुमूल्य हैं ...

Feb 2, 2011

गलती मीडिया की नहीं है, गलती जनता की है ...

आज  शेखर सुमन जी के ब्लॉग में यह पढकर आया कि किस तरह भारत के नेता, जो हजारों रुपये तनख्वाह पाते हैं, सस्ता खाना खाते हैं, और दूसरी तरफ हमारे देश में लाखों गरीब भूखे मर रहे हैं...
पढकर दिमाग में कहीं कुछ जोर से झटका मारा ... सोचने पर विवश हो गया कि आखिर ऐसा क्यूँ हो रहा है ... मेरी उन्ही भावनाओं को मैं यहाँ आप सबके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ ... बस जिस तरह के सोच और जिस क्रम में आते गए वैसे ही लिख दिया है ... उम्मीद है मेरी बातें कहीं न कहीं आपको भी सोचने पर विवश करेगी  ...
दरअसल भारत की जनता हमेशा से ही डरपोक, कायर और बुझदिल रही हैं ... तभी तो जो जब मर्जी आता है और भारत पे अपना कब्ज़ा जमा लेता है ... मेरी बात अच्छी न लगे तो इतिहास के पन्ने पलट कर देख लीजिए ... मोंगोल, हून, लोधी, मुघल, अंग्रेज, कितने नाम गिनवाऊं ?
क्या आप मिस्र या तुनिसिया जैसी क्रांति की कल्पना भारत में कर सकते हैं ... हम तो सास बहु का सीरियल देखकर खुश रहने वालों में से हैं, टीवी सीरियल और फिल्मों के नायक-नायिका हमारे लिए आदर्श हैं ... परदे पर विलेन को पिटते देख हम ताली बजाते हैं और हकिक़त में गुंडों से डरकर भागते हैं ... और इसलिए एक विदेशी कंपनी की लापरवाही से जब भोपाल में हजारों की मौत होती है तो हम सरकार से उम्मीद लगाये बैठते हैं कि वो न्याय करेगी ... किसी दुसरे देश में ऐसा हुआ होता तो ... खैर ...
हम खुद कुछ नहीं करना चाहते हैं ... हमें सबकुछ बना-बनाया चाहिए ... हमें बस आप खाना बना-बनाकर थाली में परोसते रहो ... हम तो बस बैठे बैठे खायेंगे ... और परम्परा, किस्मत, भाग्य, इत्यादि के बारे में बड़ी बड़ी हांकेंगे
हम जात पात, धर्म, प्रांतीयता इत्यादि को इतना महत्व देते हैं कि हमारे लिए एक अच्छा समाज कोई महत्व नहीं रखता ...
हमारे लिए ये जानना ज़रूरी है कि सलमान खान की नई गर्लफ्रेंड का नाम क्या है  ... पर हमें कोई फर्क नहीं पड़ता है उन बातों से कि देश में कौन कौन से बड़े प्रोजेक्ट्स शुरू होने जा रहे हैं, कौन से नेता ने क्या काम किया या नहीं किया ... अगर किसी नेता के बारे में कुछ पता चलता है, तो दो दिन हो-हल्ला होता है और फिर हम सबकुछ भूल कर वही जात-पात और धर्म की बातों में उलझकर रह जाते हैं ... हमारी स्मरणशक्ति की तो दाद देनी चाहिए ... वैसे हमारे पास फुर्सत ही कहाँ कि कुछ सोचें .. अब रोटी कमाएंगे या घोटालों के बारे में सोचेंगे ... सिमित आय और व्यय पहाड़ सा ... बच्चे भी तो हम बिना सोचे समझे पैदा करते हैं ... एक या दो बच्चों से चलता ही नहीं है ... जब तक एक आधा दर्जन बच्चे पैदा न कर लो हमें चैन नहीं आता ... भले ही उन बच्चों को हम ढंग से परवरिश दे पाएं या न पाएं ... और लड़की पैदा हो गई तो परवरिश की ज़रूरत ही क्या है ... आखिर चूल्हा-चौका ही तो करनी है ... कौन सा पैसा कमाने वाली है ... 
कभी कभी ऐसा लगता है जैसे समय का चक्र भारत में आकर थम सा गया है ... बाकी की दुनिया इक्कीसवीं सदी तक पहुँच चुकी है पर हमारे महान भारत के महान लोग अभी भी अट्ठारहवीं सदी में जिए जा रहे है ...

सच, हम भारतीय हैं ... और यही हमारी किस्मत है ... जी हाँ किस्मत, यानि कि हम इसी लायक हैं ...

36 comments:

  1. सैल भाई,

    बात तो आपने बहुत सटीक कही हैं, वाकई में जनता को ये जानने में रूचि रहती है की सल्लू भाई महबूबा कौन है, मुझे तो डर हैं की कहीं अब लोग ये जानने में रूचि ना लेने लगें की सैल भाई की महबूबा कौन है!

    लेकिन सच में जागने की बहुत ज्यादा ज़रूरत हैं मैं समझ सकता हूँ आपकी भावनाएं!

    आपके साथ हूँ!

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  2. सुरेन्द्र जी,
    सल्लू भाई रोज़ बदलते रहते हैं ... मेरी तो पिछले आठ साल से एक ही है ... और बदलने की हिम्मत नहीं है ...

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  3. आपने सही कहा, या तो गलती किसी की नहीं या तो सभी की है...
    सभी बराबर रूप से हिस्सेदार हैं....
    सच में हमारा काम आज कल केवल ताली बजाना ही रह गया है....
    जब भी मौका मिलता है वहां रूक कर थोड़ी देर ताली बजा ली मज़ा ले लिया और फिर सब कुछ भूल कर आगे बढ़ गए, नए तमाशे की तलाश में...
    ऐसा नहीं केवल राजनीति में उतरकर या सिस्टम के अन्दर जाकर ही हल निकल सकता है.... अगर हम सभी अपना अपना काम भी ढंग से कर लें तो यही बहुत बड़ी होगी....कहने को तो ये चीजें बहुत छोटी हैं, लेकिन देश के विकास में बहुत बड़ा योगदान देती हैं....
    लोग यहाँ काले धन की बात करते रहते हैं.... बहुत दुःख होता है...:( दुःख अपने आप पर ज्यादा होता है, क्यूंकि जो लोग ऐसी बातें करते हैं उनसे ये जाके पूछिए वो लोग कितना सामान खरीदते हैं कितनी चीजों की पक्की रसीद लेते हैं, काले धन जमा करने में हम भी उतना ही सहयोग कर रहे हैं.... इसलिए दूसरे पर ऊंगली उठाने का कोई मतलब नहीं है....

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  4. अरे जितनी चिंता सलमान भाई को नहीं होती उनकी गर्लफ्रेंड की , उससे ज्यादा चिंता तो हमें है....
    वो वक़्त और था जब करेंट अफेयर में लोग देश-विदेश की जानकारी रखते थे...अब तो गोसिप ज्यादा आकर्षित करती है....
    वैसे एक बात ज़रूर कहना चाहूँगा.... बाहर बैठ के किसी के नाम या काम पर ऊंगली उठा देना मेरे जैसे बातूनी के लिए बहुत आसान है... जब राजनीति में आने की बात आती है तो सब अपना अपना पल्ला झाड़ने में लग जाते हैं.... उन लोगों में मेरा नाम भी है...:( आज बिहार का मुख्यमंत्री एक इंजिनियर है तो तस्वीर बदलती दिख रही है... जिस दिन देश के पढ़े-लिखे और ज़िम्मेदार युवा राजनीति का रुख करेंगे, देश ज़रूर बदलेगा....

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  5. bilkul sach kaha aapne...ham pata nahi kab badlenge...lekin sach kahun nahi badlen hain isliye dhire dhire hi sahi...hamara desh kuchh to aage badh rha hai..

    nahi to Egypt jaisa haal ho jayega..!!

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  6. @ शेखर सुमन जी,
    यह सोचना कि हर किसीको राजनीति में जाकर ही समाज के प्रति अपना कर्त्तव्य निभाना चाहिए या यही सामाजिक दायित्व का एकमात्र रास्ता है ... मेरे ख्याल से गलत है ... हम अपने क्षेत्र में रहते हुए भी समाज को अपने अपने तरीके से योगदान दे सकते हैं और सुधार भी सकते हैं ... जैसे कि आपने खुद लिखा है, कि अगर हर कोई अपना काम ढंग से करे तो यही अपने आप में एक बहुत बड़ा कदम होगा ...
    और साथ में ज़रूरी है जात-पात, धर्म-मज़हब, प्रांतीयता जैसे कुसंस्कारों का त्याग करना ...

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  7. @ मुकेश जी
    जब मैं मिस्र का उदाहरण देता हूँ तो वह इसलिए नहीं कि उनका समाज हमसे बेहतर है, यह एक उदाहरण है कि यदि जनता एकजूट हो जाय, तो क्या कुछ नहीं संभव है ...
    लढाई-झगडा या रास्तों पे उतरके तोड़-फोड करने कि ज़रूरत नहीं है ...
    समाज बदलने के लिए इतना ही काफी है कि हम अपने संकीर्ण मानसिकता से आगे चलकर, जात-पात, धर्म-मज़हब, प्रांतीयता इत्यादि भावनाओं को भूलकर, केवल योग्यता के आधार पर चुनाव करें ... टीवी सीरियल, सिनेमा, नायक-नायिका जैसे बेतुकी बातों को भूलकर, हकिक़त से रूबरू होकर समाज में सचेंतानता से जीने लगें ...
    देश आगे बढ़ रहा है इसमें संदेह नहीं है ... पर दो कदम आगे अब्धना और फिर एक कदम पीछे आना ... इस तरह से हम बाकी की दुनिया का बराबरी करने का ख्वाब कभी नहीं देख सकते हैं ...

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  8. मैंने तो बस एक बात कही है कि किसी न किसी को तो सिस्टम के अन्दर उतरकर अपने हाथ गंदे करने ही पड़ेंगे....
    भविष्य में ऐसे राजनेताओं की ज़रुरत पड़ने वाली है...

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  9. मगर जनता को ज्यादा दिन मुर्ख भी नहीं बनाया जा सकता इसका उदहारण मिश्र है और वहां तो निरंकुश शासन था. अपने नेताओं को कम से कम इससे सबक लेनी चाहिए क्योंकी ये तो पाँच साल बाद उखड भी सकते है. आपने बहुत ही सही समस्या को उठाया है. विचारणीय प्रस्तुति.

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  10. आलेख
    मननीय है .....

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  11. अब दुष्यंत कुमार जी का यह शेर सुनाये बगैर रहा नहीं जा सकता,

    "हमारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नही,
    मज़ा ये है के फ़िर भी हमें यकीन नहीं!"

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  12. सही बात .... यह बातें विचारणीय भी हैं और मननीय भी....

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  13. आपके विचारों से सहमत.

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  14. आपके विचारों से पूरी तरह से सहमत हूँ.

    सदर

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  15. आपके निष्कर्ष से पूर्ण सहमती है.ऐसा इसलिए है की,भाग्य और भगवान की गलत व्याख्याएं ढोंगियों ने चला राखी हैं एवं पढ़े-लिखे लोग भी वही मानते हैं.इन सब का भंडाफोड़ तथा विकल्प क्रांति-स्वर पर प्रस्तुत करते रहते हैं

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  16. यहाँ तो अच्छी खासी बातें हो रही हैं सहमत हूँ आपसे ।----हम जात पात, धर्म, प्रांतीयता इत्यादि को इतना महत्व देते हैं कि हमारे लिए एक अच्छा समाज कोई महत्व नहीं रखता ...
    मुझे लगता है असली फसाद की जड यही है तभी हम चाह कर भी अपने नेता या व्यवस्था को नही बदल पाते। आभार।

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  17. aapne ekdam thik kaha hai
    mai aapse sahmat hu
    ..

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  18. And in other news.... :)

    Hey Indranil,

    Pls promote/vote for my blog at this url:

    http://www.indiblogger.in/indipost.php?post=46697

    Cheers!!

    :)

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  19. बहुत द्वन्द है इस लेखन में ... ये सच है की जो लोग सांस्कृतिक रूप से (अधिक ज्ञान रखने वाले) अग्रणी होते हैं ... वो शारीरिक र्प्पो से अपांग से हो जाते हैं ... पर मुझे नहीं लगता हम शुरू से इतने कायर थे ... अंग्रेजों से पहले जो भी आये उनका हमने सामना किया ... पर ये सच है की अंग्रेजों ने हमारे देश की रीड तोड़ दी ... अपने वंशज छोड़ गए तो आज भी मानसिक रूप से गुलाम हैं ..

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  20. आपकी तकलीफ भरी भाषा समझ में आती है. पता नहीं हम टिकाऊ समाज के मायने कब समझेंगे. सभी हमारे हमारे सामाजिक बिखराव का फायदा उठाते रहे हैं. मुट्ठी भर लोग देश को बेच कर खाते रहे हैं. सैल जी यह समाज किसी क्रांति से नहीं बदल सकता क्योंकि यहाँ क्रांति हो नहीं सकती. ईश्वर ने चाहा तो भारतीय समाज को विकास के पथ पर भावी पीढ़ियाँ धीरे-धीरे ले जाएँगी. आखिर हमें स्वतंत्र हुए दिन ही कितने हुए हैं.

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  21. सैल भाई, आपकी भावनाओं ने भीतर तक हिला दिया, समझ में नहीं आ रहा क्‍या कहूं।
    ---------
    ध्‍यान का विज्ञान।
    मधुबाला के सौन्‍दर्य को निरखने का अवसर।

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  22. @ नासवा जी,
    क्षमा करें, आपसे इस विषय में असहमत हूँ ... मैं ये नहीं मानता हूँ कि सांस्कृतिक उन्नती शारीरिक अपंगता का द्योतक है ...
    अंग्रेजों से पहले या बाद में हो ... हम सामना तो हमेशा करते आये हैं पर हमारे इस विरोध का कभी कोई खास असर नहीं हुआ है ... इसका कारण हमारे शारीरिक अपंगता नहीं है ... बल्कि हमारी गलत और अपंग समाज व्यवस्था है जिसने हमें हमेशा से ही जोड़ने के वजाय तोड़ने का काम किया है ... कम से कम अंग्रेज हमें तकनिकी रूप से बहुत कुछ दे गए हैं ...
    समाज को तोड़ने में अंग्रेजों की भूमिका भी कम नहीं रही पर उनके षडयंत्र को नाकाम करने के वजाय हम और बलबत करते गए ... आज भी यही कर रहे हैं ... जात -पात और धर्म आधारित आरक्षण, फैसले इत्यादि द्वारा ...
    अंगेजों को अपने वंशज छोड़ने की ज़रूरत नहीं है ... हम खुद काफी हैं इस गुलिस्तान को बर्बाद करने के लिए ...

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  23. @ भूषण जी,
    आप मेरी बात समझ पाए, यह जानकर अच्छा लगा ... पर यहाँ एक बात कहना चाहूँगा कि मैंने मिस्र और तुनिसिया का उदाहरण इसलिए नहीं दिया कि मैं रास्ते पर उतरकर धरना या प्रदर्शन को ही क्रांति के लिए ज़रूरी मानता हूँ ...
    मेरा निहितार्थ यह है कि यदि जनता एकजूट होकर कुछ करे तो क्रांति ज़रूर आयेगी ... और इसके लिए सोच में क्रांति लाना ज़रूरी है ... इस क्रांति के लिए कोई अवतार या नेता की ज़रूरत नहीं है ... यह हर इंसान खुद में ला सकता है ...
    अंग्रेजों से तो हम आजाद हो गए हैं पर अपनी रुढियों का गुलाम बने हुए हैं ...

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  24. आपके विचारों से सहमत।
    जन-क्रांति की आवश्यकता अब महसूस होने लगी है।

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  25. सहमत हूँ... परन्तु अब लगता है की शायद हवाओं का रुख कुछ बदल-सा रहा है...
    ये सब ख़त्म तो नहीं होगा परन्तु बदलाव की सम्भावना जोरों पर है... इसीलिए बहुत हद तक सीमित हो सकता है...

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  26. एक और ब्लाग पर संभावना व्यक्त की गई थी कि मिस्र जैसी क्रांति हमारे देश में भी होगी, लेकिन हमें भी यकीन नहीं है।

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  27. हमने तो एक छोड दो-दो दुश्मन पाले हुए हैं। एक ओर "... हमैं का हानी" वाला दृष्टिकोण और दूसरी ओर "मन्नै के मिलेगा?" वाला। नतीजा यह कि जो हो जैसा हो, सब चलता है। जो हालात हैं उसमें तो हर चौराहे पर क्रांति होनी चाहिये, परंतु स्वार्थ और भय से भी कभी क्रांति होती है क्या?

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  28. @ स्मार्ट इंडियन
    आपने सही कहा, दरअसल मैंने भी यही बात कही है अपने पोस्ट में ... हम हमेशा से ही डरते आ रहे हैं, यही कारण है कि समाज सुधर नहीं रहा है ...यही डर हमें स्वार्थी बनाता है

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  29. आपके विचारों से सहमत।
    जन-क्रांति की आवश्यकता अब महसूस होने लगी है।

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  30. samay kab badhega ... kaun kah sakta hai , bas yahi sthiti hai aur chup rahna hai

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  31. bahut samyik mudde ko uthhati post .badhai .

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